प्रिय भाई नरेन्द्र सिंह जी,
किसानों के नाम लिखी आपकी चिट्ठी पढ़ी।
काश, आपने इसमें संवेदना के दो शब्द भारत के उन 30 इंसानों के बारे में लिखे होते, जो 26 नवम्बर से आपकी सरकार के द्वारा दिल्ली की बॉर्डर्स पर अनावश्यक रूप से रोककर रखे जाने के चलते असमय ही काल के ग्रास बन गए।
काश, दो शब्द सहानुभूति के आपने उनकी उस अकथनीय और अवर्णनीय पीड़ा के बारे में लिखे होते, जिसे पहले उन्होंने आंसू गैस, ठण्डे पानी की बौछार और लाठी चार्ज तथा गिरफ्तारियों के रूप में झेली और अब 4 डिग्री सेल्सियस की कड़कती शीत में करीब महीने भर से सिंघु, टिकरी, गाज़ीपुर, पलवल और शाहजहांपुर की बॉर्डर्स पर रुके-रुके सहन करने के लिए विवश कर दिए गए हैं। उनकी मांगों से आपकी असहमति हो सकती है, किन्तु उनके अत्यंत शांतिपूर्ण तरीके की तो स्वयं आपने सराहना की थी! इसके बावजूद इतनी लम्बी चिट्ठी में भी ठीक यही बात लिखना भूल जाना स्तब्ध करता है। मंत्री के नाते न सही, एक मनुष्य के नाते, एक भारतवासी के नाते आपसे इतनी अपेक्षा तो बनती ही है। मगर, जाहिर है : कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता।
काश, इस चिट्ठी को आपने अपने गृह नगर और पूर्व संसदीय क्षेत्र ग्वालियर के भदरौली या घाटीगांव या वर्तमान संसदीय क्षेत्र मुरैना के बस्तौली या गंज रामपुर जैसे किसी गाँव के किसानों की रोटी-दाल-सब्जी खाते हुए लिखा होता। वे आपको गुड़ भी खिलाते और उतनी ही मिठास के साथ अपनी दुर्दशा की कहानियां भी सुनाते, अपना असली हाल भी दिखाते। ऐसा करते तो आपको एमएसपी की बम्पर खरीद , किसानों की खुशहाली और इन तीन कानूनों पर उनके बल्ले-बल्ले करने जैसे निराधार दावे करने से पहले तीन बार सोचना पड़ता और किसान का बेटा – जैसा कि आपने अपने बारे में दावा किया है – कार्पोरेट्स की पैरवी करने की हास्यास्पद स्थिति में पहुँचने से बच जाता। मगर लगता है, आपने इस चिट्ठी को लिखने का जिम्मा भी कारपोरेट कंपनियों की पीआर एजेंसियों या अपने कुटुंब की आईटी सैल को दे दिया, जिनकी विषाक्त सांघातिकता पर आजकल आपका पूरा विचारकुल मोहित हुआ पड़ा है। खैर, जब पढ़ने-लिखने से विरक्ति और बौद्धिकता से नफ़रत हो, तब तथ्य और तर्क से बात कर सकने की क्षमता का बाधित होना और विकल्पों का सिकुड़ना स्वाभाविक सी बात है।
खैर, जिन किसान संगठनों के पीछे खड़े होने वाले पांच किसान भी नहीं हैं, उनके समर्थन की चिट्ठियों से आप संतुष्ट और प्रसन्न हैं, तो फिर कुछ कहने को नहीं बचता। लेकिन यहां आप भारत के कृषि मंत्री के रूप में इस चिट्ठी को लिख रहे थे, इसलिए कुछ बातें हैं, जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए था। जहाँ तक मेरी जानकारी है, “झूठ” एक असंसदीय शब्द है, एक जनांदोलन के बारे में इस तरह के शब्दों से बचा जाना चाहिए। मगर किसानों और ग्रामीणों के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए बैठी आपकी सरकार, लगता है, “युद्ध में सब कुछ जायज है” के घिसे-पिटे मुहावरे को ही अपना सूत्र वाक्य मानती है।
जहाँ तक चिट्ठी में लिखे आपके दावों की सचाई है, उनमें से न तो एक भी नया है, ना ही इस लायक है कि उनमें से किसी का भी जवाब दिया जाए। इनके खोखलेपन और शब्दाडम्बर को किसान संगठनों की ओर से अनेक बार, आपसे हुए पांच दौर की चर्चा में बार-बार उजागर किया जा चुका है। छह हजार की किसान सम्मान निधि की असलियत, खाद की कालाबाजारी वगैरा-वगैरा के दावों की असलियत दुनिया जानती है। उन दावों की निरर्थकता को दोहराने का कोई मतलब नहीं। आप चाहें तो इन्हे अपनी सरकार की कथित उपलब्धियों के रूप में दोहराते रह सकते हैं।
फिलहाल ताजे सन्दर्भ के लिए कुछ ताजी बातें आपके संज्ञान में ला देना प्रासंगिक होगा।
जैसे : एमएसपी पर खरीदी का दावा करते समय आपको याद रहा होगा कि आपके लोकसभा क्षेत्र मुरैना में किसान अपना बाजरा लिए हुए 10-10 दिन तक खरीद एजेंसियों के सामने खड़े रहे और ट्रेक्टर ट्रॉली का भाड़ा चुकाने लायक पैसा भी लिए बिना लौटने के लिए मजबूर हो गए। “किसान अपनी फसल चाहें जहां बेच सकेगा” का दावा करने से पहले, उम्मीद है, आपने अपनी ही पार्टी के हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान के बयान पढ़े होंगे, जिनमें उन्होंने “प्रदेश के बाहर से फसल बेचने आये किसानों के खिलाफ कार्यवाही” करने की धमकी दी थी। मध्यप्रदेश वाले मुख्यमंत्री तो “उनके ट्रक-ट्रेक्टर जब्त करने और जेल भेज देने” तक की घोषणा कर रहे थे। इन वीर मुख्यमंत्रियों की इन सिंह गर्जनाओं पर आपकी सरकार ने एक शब्द भी नहीं बोला। और यह अभी-अभी की बात है। इसके बाद भी तीन कानूनों के एकमात्र कथित लाभ के रूप में किसानों को मुक्त करने का दावा करना यदि आँखों में धूल झोंकना नहीं है, तो क्या है?
आपका दावा है कि आपकी सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सारी सिफारिशें लागू दी हैं। और तो और, फसल की डेढ़ गुनी कीमत भी दे भी दी। पता नहीं आपको पता भी है कि नहीं पता कि आपकी ही सरकार थी, जिसने एमएसपी के तर्कपूर्ण निर्धारण के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के जवाब में शपथपत्र देकर कहा था कि “भले चुनाव घोषणापत्र में ऐसा वादा किया था, किन्तु अभी हम इसे लागू नहीं कर सकते।” कृपया बताएं, सच क्या है : सुप्रीम कोर्ट में कही बात या सिर्फ शाब्दिक जुगाली के रूप में फैलाया गया भरम!!
निजी मंडियां भी आयेंगी, एपीएमसी की मंडियां भी चलेंगी –का दावा वैसा ही है, जैसा — जिओ भी आयेगा और बीएसएनएल भी चलेगा — के रूप में किया गया था। जमीन कहीं नहीं जाएगी, का दावा करने के पहले उचित होता कि आप अपने गृह प्रदेश – मध्यप्रदेश – में हुए जबरिया भूमि अधिग्रहण और उसके नतीजे में हुयी बेदखली का नजरिया सर्वेक्षण ही कर लेते। यदि इन तीन कानूनों के आने के पहले यह स्थिति है, तो इनके लागू होने के बाद क्या होगा, यह समझने के लिए कृषि-अर्थशास्त्री होना आवश्यक नहीं है। साधारण किसान भी इसे समझता है।
नरेन्द्र भाई,
बेहद अफ़सोस की बात है कि किसानों की बेचैनी के इतने विराट शांतिपूर्ण प्रतिरोध के समय, बजाय उनकी चिंताओं का समाधान करने और इसके लिए उनके साथ लोकतांत्रिक विमर्श जारी रखने की पेशकश करने की बजाय, आपने अपनी चिट्ठी में अपनी राजनीतिक पार्टी की विभाजनकारी अफवाहों और बे-सिर-पैर के आरोपों को दोहराने के लिए खर्च कर दिया। आपकी पार्टी के नेता किसानों को राजनीतिक पार्टियों द्वारा गुमराह बता रहे हैं, उन्हें खालिस्तानी करार दे रहे हैं, पाकिस्तान और चीन द्वारा प्रायोजित बता रहे हैं, इधर आप भी लगभग उन्हीं आरोपों को दूसरे तरीके से मढ़ रहे हैं। पूरे ढाई पेज आपने इसी तरह की अनर्गल बातों में खर्च कर दिए।
आप यह भूल गए कि जिन किसानों पर “सेना के जवानों की रसद रोके जाने” का आरोप मढ़ कर अपरोक्ष रूप से उनके बारे में अपनी आईटी सैल के कुंठित प्रचार को दोहरा रहे हैं, यह वह पंजाब है, जिसका देश के सैनिक बलों में कितना योगदान है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। उनके बारे में इस तरह की टिप्पणी किसी मंत्री तो दूर, किसी भारतीय नागरिक के मुंह से भी अच्छी नहीं लगती।
ठीक यही बात मौजूदा सरकार के कार्यकाल में हुयी अलोकतांत्रिकताओं की पराकाष्ठाओं का शिकार हुए विद्यार्थी, दलित, महिला, माइनॉरिटी और बुद्धिजीवियों पर भी घिसे-पिटे आरोप दोहरा कर आपने इस चिट्ठी को अरक्षणीय की रक्षा करने का अवसर बनाने की जो कोशिश की है, वह हैरत में डालने वाली है। इतने विराट आंदोलन के बारे में कुछ बोलने की बजाय इधर-उधर के असत्य और कल्पित, अनर्गल और निराधार बातों को दोहराना आपके और आपकी सरकार के अपराधबोध की चुगली खाता है।
यह उसी झूठे आख्यान को आगे बढ़ाने की कोशिश है, जिसकी आड़ में भाजपा स्वतन्त्रता आंदोलन में निबाही अपनी अंग्रेजपरस्त भूमिका और देश की एकता को तोड़ने की अपनी कारगुजारियों को ढांकने के लिए इस्तेमाल करती आयी है। इसे काठ की हांडी भी कहना ठीक नहीं। यह सूखे घास की वह हांडी है, जिसे जितनी बार चढ़ाया जाएगा, उतनी ही बार उसकी निर्लज्ज नग्नता और उजागर होगी। जिस प्रदेश से आप सांसद हैं, उसी प्रदेश की भोपाल की सांसद महोदया के बयान और गोडसे पूजन के महोत्सवों के आयोजनो के सूत्रधारों के संग साथ में रहते हुए गांधी की प्रतिमा के प्रति आपकी चिंता खासी दिलचस्प और रोचक लगती है। मंत्री जी 1962 तक जाते और उसके बारे में अपना “गहरा ज्ञान” प्रदर्शित करते समय, लगता है, आप साबरमती में झूला झुलाना और डोकलाम भूल गए। इतनी चुनिंदा विस्मृति शाखा के बौद्धिकों तक तो ठीक हैं, किन्तु सार्वजनिक विमर्श में मजाक का विषय ही बनती हैं।
माननीय मंत्री जी, इस आंदोलन के पूरे दौर में आपने एक ही सही बात की है और वह यह कि “यदि क़ानून वापस ले लिए गए, तो सरकार से कारपोरेट का भरोसा उठ जाएगा।” यदि अडानी, अम्बानी और अमरीकी कार्पोरेट्स को मुंह दिखाने की इतनी ही अधिक चिंता हैं, तो उसे कृपा करके बदलें। बेहतर होगा कि इन कानूनों की जांच के लिए और भविष्य में बनाई जाने वाली नीतियों से पहले संविधान के नीति-निर्देशक हिस्से को पढ़ लें।
कृपया भारत के लोकतंत्र को कुछ कार्पोरेट्स के हितों के अधीन न करें और सरकार की तरफ से जबरिया बंद की गयी वार्ताओं को दोबारा से आरम्भ करें – इन तीनों कानूनों को पूरी तरह निरस्त, खारिज और रद्द करने, बिजली संबंधी क़ानून को नहीं लाने और एमएसपी के तार्किक निर्धारण तथा उसके भुगतान को बाध्यकारी बनाने वाला क़ानून बनाने की घोषणा कर इस असाधारण स्थिति के सामाधान की पृष्ठभूमि तैयार करें।
मान्यवर नरेन्द्र सिंह जी, आपसे अनुरोध है कि :
जमीन के यथार्थ को समझें और कृपा करके कारपोरेटपरस्त राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता की बजाय भारत के संघीय गणराज्य के मंत्री की भूमिका में वापस लौटें।
शुभकामनाओं सहित
आपका शुभाकांक्षी,
*बादल सरोज*
संयुक्त सचिव, अखिल भारतीय किसान सभा
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