इसमें दो मत नहीं कि इतिहास एक विज्ञान है। मगर उसके अपने नियम होते हैं। यह भौतिकी, रसायन या नाभिकीय विज्ञान जैसा — यूँ होता, तो यूँ होता, तो क्यूँ होता — जैसा सूत्रबद्ध किये जा सकने वाले अपरिवर्तनीय नियमों में बंधा विज्ञान नहीं है। यही वजह है कि इतिहास से सीखा तो जा सकता है, किन्तु उसमे वर्तमान के हूबहू समरूप या पैरेलल्स नहीं ढूँढे जा सकते/ नहीं ढूँढे जाने चाहिए। अब जैसे शासक वर्गों की तानाशाही को ही ले लें । 1972-77 के बीच बंगाल के जनवादी आंदोलन ने जिस अर्द्धफासिस्ट आतंक को भुगता था, उसे 2011 के बाद के, उससे भी ज्यादा कठिन हालात में फंसे पश्चिम बंगाल से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। इंदिरा गांधी की इमर्जेन्सी की तुलना 2014 के बाद के उससे ज्यादा खराब हाल में पहुंचे भारत से नहीं की जा सकती। इतिहास के विज्ञान का एक बड़ा कारक उसका देशकाल होता है – जो परिवर्तनशील है।
शोषक-शासक वर्गों की तानाशाही सार में क्रूर से क्रूरतम होती है, किन्तु रूप में हमेशा एक जैसी नहीं होती। उसके रूपों में एकरूपता तलाशना, उनके दोहराव के एकदम वैसे ही लक्षण देखना अनैतिहासिक भी है – अवैज्ञानिक भी। सिर्फ भारत ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक इतिहास के मामले में भी यही सच है। जिसे पूँजी के शोषण का बर्बरतम रूप कहा गया, वह तानाशाही फासिज्म के नाम से इटली में आयी, मगर उसी नाम से उसी जमाने के जर्मनी तक में नहीं आयी। वहां नाजीवाद आया। इंडोनेशिया में 1967 में यह जनरल सुहार्तो का नाम धर कर आया, तो 1973 में चिली में इसे ऑगस्टो पिनोशे का नाम मिला। अभी संयुक्त राज्य अमरीका में यह ट्रम्प की ब्रुअरी में खदबदा रहा है – यदि मनुष्यता के दुर्भाग्य से यह कामयाब हुआ, तो उसका रूप अलग होगा।
भारत के शोषक-शासक वर्गों की बर्बर तानाशाही, जिसकी चौतरफा धमक पिछले एक सप्ताह में पूरे देश ने देखी और सुनी है, अपनी मिसाल आप है। कोरोना वायरस की तरह यह हिन्दुत्व का अणु है, जो साम्राज्यवादी पूँजी और देसी कारपोरेट की चर्बी के एक गाढ़े घोल में लिपटा हुआ है। जैसे-जैसे इसकी चर्बी की परत मोटी होती है, वैसे ही और ज्यादा मोटा होने की उसकी हवस बढ़ती जाती है और नतीजे में तानाशाहीपूर्ण वर्चस्व कायम करने की इसकी सांघातिकता भी संक्रामक और सर्वभक्षी होती जाती है। कोरोना की महामारी के बीच यह सारी लाज-शरम को त्याग कर महामारी की रफ़्तार से भी कहीं ज्यादा तेज गति के साथ बढ़ रही है।
देश के नामी कवि और बुद्धिजीवी 81 साल के वरवरा राव अपनी लेखनी और विचारधारा के कारण दो साल से जेल में हैं। गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद जमानत और इलाज दोनों से महरूम हैं। वे अकेले नहीं हैं। नताशा नरवाल, देवांगना जैसी युवतियां, सुधा भारद्वाज जैसी एक्टिविस्ट वकील, गौतम नवलखा और बाबा साहब अम्बेडकर के पौत्र दामाद से लेकर जमानत मिलने के बाद भी जेल में रखे गए डॉ. कफील तक बीसियों ऐसे लोग हैं, जिन्हें उनकी असहमति की वजह से यातना का शिकार बनाया जा रहा है। यह तानाशाहीपूर्ण वर्चस्व का देशज रूप है। इसी का दूसरा रूप उत्तरप्रदेश में 2017 से अब तक हुए 5178 पुलिस एनकाउंटर्स है, जिनकी निरंकुश अवैधानिकता हाल ही में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त गैंगस्टर विकास दुबे के पहले दुनिया भर के सामने उज्जैन के महाकाल मंदिर में हुए वीआईपी सरेण्डर और फिर कानपुर में सरासर फर्जी एनकाउंटर के रूप में सामने आयी।
इसे आठ पुलिस वालों की हत्या से उपजा आक्रोश बताना या घोषित अपराधी से आजिज आ जाने का नतीजा बताना बेहूदगी के सिवा कुछ नहीं। यदि पुलिसिया गुस्सा होता, तो इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह या डीएसपी खान की हत्याओं या बलात्कारी हत्यारे कुलदीप सेंगर के मामलों के समय भी होना चाहिए था। यह क़ानून के राज को सीधे पुलिस और उसे राजनीतिक संरक्षण देकर सहभागी बनाने वाले योगी का राज बना देने का एक नमूना है। यह हिन्दुत्वी कारपोरेट के त्रिशूल का दूसरा शूल है। इसी का तीसरा शूल है न्यायपालिका की परवाह न करना – हरसंभव तिकड़म कर उसे अप्रासंगिक बना देना। राजनीतिक मुकदमों में वरवरा राव और अन्य बिना जमानत जेलों में हैं, वहीं 60 आपराधिक मुकदमो के बावजूद गैंगस्टर विकास दुबे जमानत पर था। पुलिस एनकाउंटर्स पर सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइन्स का पूरी निर्लज्जता के साथ उल्लंघन किया जा रहा है। दिल्ली दंगों के मामले में बीसियों अभियुक्तों के खिलाफ एकदम एक जैसी भाषा, अर्धविराम, पूर्णविराम की फर्जी चार्जशीट्स दाखिल कर न्याय प्रणाली को अंगूठा और तर्जनी दोनों दिखाई जा रही हैं।
भारत में तानाशाहीपूर्ण वर्चस्व लाने को आमादा आतुर जमात सिर्फ जेल और बन्दूक की भाषा में ही बात नहीं कर रही – वह अपनी तानाशाही को स्वीकार कर लेने वाली जनता भी पैदा करना चाहती है/ कर रही है। इसके लिए वह सिर्फ गोदी मीडिया पर ही निर्भर नहीं है। अब शिक्षा के पाठ्यक्रम से भी लोकतंत्र, संविधान प्रदत्त मूल अधिकार, नागरिक अधिकार, समानता इत्यादि के पाठ हटाए जा रहे हैं। घुट्टी में ही नृशंसता पिलाना इसी को कहते हैं। बीच-बीच में कभी अम्बेडकर के घर पर हमला बोलकर, तो कभी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर पर लगे बोर्ड को पोतकर वे अपनी तानाशाही की झांकी का पथ-संचलन भी करते रहते हैं। यह सोच-विचार के ख़ास तरह के रुझानों को विकसित करने के ग्रैंड प्लान का हिस्सा है। तेजी से फैलती महामारी के बीच पहले मध्यप्रदेश, अब राजस्थान में खरीद-फरोख्त और तिकड़म की राजनीति संसदीय लोकतंत्र में “सुधार” का कार्यक्रम है, जिसका मकसद सिर्फ सत्ता हथियाना भर नहीं है, राजनीतिक ढांचों को ही नेस्तनाबूद कर देना है।
भेड़ियों को कोसना भर काफी नहीं होता, उनसे बचना और उन्हें खदेड़ना सीखना और व्यवहार में लाना होता है और यह काम मैदानी और वैचारिक दोनों ही मोर्चो पर जरूरी होता है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में देश की सबसे पुरानी पार्टी की हास्यास्पद स्थिति ऐसा न करने के नतीजे का उदाहरण है। जब विचारधाराओं की रोशनियाँ कारपोरेट की कमाई के अँधेरे बचाने के लिए गुल कर दी जाती हैं, तब कबरबिज्जू, तिलचट्टे और दीमकों के ठठ के ठठ निकलते हैं और सिर्फ दलों को नहीं, सभ्यताओं के हासिल को भी चट कर जाते हैं।
ऊपर लिखी घटनाएं पिछले सप्ताह की कारगुजारियां हैं; तानाशाही थोपने की रफ्तार धमाधम है, लेकिन ऐसा नहीं कि इस सप्ताह भर जनता गुमसुम बनी रही हो। रहेगी भी नहीं, क्योंकि उसे पता है कि दांव पर सिर्फ कुछ राजनीतिक पार्टियां या व्यक्ति नहीं है। सबसे ज्यादा दांव पर लगी है जनता की जिंदगी और कठिन लड़ाईयों के बाद बमुश्किल हासिल हुए अधिकार – उन्हें यूँ ही जाया नहीं होने दिया जायेगा।
आलेख : बादल सरोज (सयुंक्त सचिव)
अ.भा.किसान सभा