देहरादून, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम में साप्ताहिक सत्संग में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या व देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी ममता भारती ने कहा कि आदि गुरू शंकराचार्य ने एक बार कहा था कि सबसे कठिन कार्य यदि कोई है तो वह है मनुष्य द्वारा अपने मन का निग्रह (वश में) कर लेना। शंकराचार्य जी ने मन के निग्रह को कठिन अवश्य कहा किन्तु असम्भव नहीं। महापुरूषों ने इस मन को बंदर की संज्ञा प्रदान की है, जिस प्रकार बंदर अत्यन्त चंचल जीव है, यह कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं बैठता, उछल-कूद करता ही रहता है, ठीक इसी तरह मानव मन भी सदैव चलाएमान रहा करता है, इधर-उधर भटकता ही रहता है। 

बंदर को जिस प्रकार एक मदारी अपने डमरू की ताल पर अपने हिसाब से नचाया करता है ठीक एैसे ही मनुष्य के मन को पूर्ण ब्रह्म्निष्ठ संत अपने पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ की दिव्य मधुर ताल पर जब नचाने लगते हैं तब यह चंचल मन ईश्वर के श्रीचरणों में स्थिर होने लगता है। मन की चंचलता अलोप होकर एक निश्चित राह पर अग्रसर होने लगती है, भक्त और भक्ति की यही प्राकाष्ठा है, मन को साधने का यही एक शास्त्र-सम्मत सार्वभौमिक उपाय है। मन की व्यथा यह है कि यह अनन्त विचारों का एक विशाल समूह है। मन कोई शारीरिक अंग-प्रत्यंग नहीं है, अच्छे बुरे एकत्रिक विचारों के समूह को ही मन कहते हैं, यही मन का असतित्व है। जीवन में जब कोई पूर्ण संत आते हंै तो मन की दिशा का सटीक निर्धारण किया करते हंै। मन की दिशा सही हो जाने पर मनुष्य की दशा भी सुधरने लग जाती है। अविवेकी मन अनेकानेक समस्याओं का भंडार है, अविवेकी मन ही मनुष्य की उथली धारणाओं को पुष्ट किया करता है। महापुरूष बताते हैं कि मनुष्य का मन ही उसके उत्थान तथा पतन दोनों का ही कारण बनता है। 
   अब प्रश्न इस बात का है कि एक मन दो विरोधाभासी परिस्थितियों का जनक कैसे हो सकता है? महापुरूष अच्छा उदाहरण देते हुए समझाते हंै कि जिस प्रकार एक ताला है और उसकी चाबी भी एक ही है, एक ही चाबी से ताला खुलता भी है और बन्द भी होता है, बस! अंतर केवल चाबी की दिशा का हुआ करता है, सीधी तरफ घुमाने से ताला खुलता है और उल्टी तरफ चाबी घुमाने से ताला बन्द हो जाता है। यही दशा मनुष्य के मन की भी है। सकारात्मक विचारों, सकारात्मक सोच से मन खुलता है अर्थात उच्चता, श्रेष्ठता, विद्धता की ओर अग्रसर होता है, नकारात्मक विचारों, नकारात्मक सोच से यह मन संकुचित (बन्द) हो जाता है। नकारात्मक विचार मन को अधोगामी, निकृष्ट और विकारी स्वरूप प्रदान किया करते हैं। मन की दिशा विशेषकर भक्ति के मार्ग में तो अहम् भूमिका निभाया करती है। भक्ति डगर में मन नहीं अपितु भावना, श्रद्धा और विवेक चलते हैं। मन की पावनता, निश्छलता और उत्कृष्टता पर महापुरूष सदा बल देते आए हैं। बल ही नहीं देते आए बल्कि इस मन को पूर्ण रूपेण साधने की परम युक्ति भी परम गुरू के माध्यम से मनुष्य मात्र को देते आए हैं। अंधेरों में डूबे मन को परमात्मा के परमोज्जवल प्रकाश से आलौकित भी करते आए हंै। अंधेरा जहां जटिल परिस्थितियों का जनक है वहीं ब्रह्म्ज्ञान का प्रकाश सदा पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाता है। उन्होंने कहा कि नकारात्मकता इंसान की राह को रोकती है जबकि सकारात्मकता राह को असान बनाती है। नकारा विचार बुद्धि को दूषित बनाते हैं और इससे व्यक्ति ही नहीं अपितु परिवार, समाज़ और अन्ततः समूचा विश्व ही कुप्रभावित होता चला जाता है। चूंकि मनुष्य विश्व की एक इकाई है इसलिए इकाई के मन का प्रभाव समूचे जगत को अवश्य प्रभावित करेगा। महापुरूषों ने मनुष्य मन को उसके मूल परमात्मा के अलौकिक प्रकाश के साथ जोड़कर उसकी सारी समस्याओं का समाधान कर दिया, वे पावन ग्रन्थ के माध्यम से उद्घोष करते हैं- मन तू जोत सरूप है, अपणा मूल पछाण। आदि गुरू शंकराचार्य जी ने यदि मन के निग्रह को कठिन बताया तो महज़ तब तक, जब तक इस मन को उसके मूल परमात्मा के दिव्य प्रकाश के साथ जोड़ देने वाले कोई पूर्ण सद्गुरू जीवन में नहीं आ जाते, तब तक। गुरू का तो शाब्दिक अर्थ ही है, ‘‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाली शक्ति।’’ मानव जीवन में तो पूरे गुरू की महान भूमिका है, गुरू अपने शिष्य को ब्रह्म्ज्ञान की दीक्षा प्रदान करते समय तत्क्षण! ही उसका दिव्य नेत्र उजाग़र कर देते हैं जिससे शिष्य अपने अन्र्तजगत में परमात्मा के अनन्त प्रकाश का दर्शन करते हुए अपने मन को ईश्वर की राह पर आगे बढ़ाने की दिशा का स्पष्ट अवलोकन कर लिया करता है। पूर्ण सद्गुरू के सम्बन्ध में शास्त्र उनकी अभिवन्दना करते हुए यही गाया करता है- सद्गुरू की महिमा अनन्त है अनन्त किया उपकार, लोचन अनन्त उघारिया अनन्त दिखावनहार। प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम विराम दिया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ करते हुए मंच पर आसीन संस्थान के संगीतज्ञों द्वारा अनेक मन भावन भजनों का गायन किया गया। ‘‘लागी लगन मत तोड़ना, हरि जी मोरी लागी लगन मत तोड़ना…..’’, ‘‘नानक पावे पारब्रह्म्, पावन नीर तरे…..’’, ‘‘ये दो नैना कहा नहीं माने, नदिया जैसे सावन की, आवन की मनभावन की…..’’, ‘‘आशु तेरे हाथों में मेरी पतवार…..’’ तथा ‘‘मेरे गुरूवर तेरे बिना हम रह ना पाएंगे, तुमसे जुदा हों ना कभी, हम सह ना पाएंगे……’’ इत्यादि भजनों में खो कर संगत निहाल होती गई। भजनों में व्याप्त गूढ़ आध्यात्मिक तथ्यों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी कुष्मिता भारती के द्वारा किया गया।