पहाड़ ‘डरता’ नहीं था लेकिन संघर्षों की ’लौ’ धीमी पड़ने लगी तो ‘डरने’ लगा है । पहाड़ सरेआम लुट रहा है और चारों ओर ’खामोशी’ है । उसके ‘अपने’ ही उसके लिए ‘गैर’ हो गए हैं । उसका अस्तित्व खतरे में है, सवालों के ‘खेत’ बिना ‘हल’ के सूख चुके हैं । हर शख्स यहां परेशां है, हर किसी में छटपटाहट है, हर किसी को एक ‘क्रांति’ का इंतजार है । दरअसल अपनी ही सरकारों और ‘पैरोकारों’ ने ‘पहाड़’ को इस कदर बेरहमी से रौंदा है कि ‘पहाड़’ सन्नाटे में है । कभी लगता है कि यह सन्नाटा किसी बड़े ‘तूफान’ का संकेत है , कभी लगता है कि यह उसकी ‘नीयति’ है । खैर, टूटती उम्मीदों के बीच पंचेश्वर में प्रस्तावित बांध के विरोध के साथ पंचेश्वर से शुरु हुई एक ‘जन संवाद यात्रा’ ने पहाड़ में पसरे सन्नाटे को ‘चीरने’ की कोशिश की है । इस यात्रा में गैरसैण के बहाने तमाम हिस्सों से एकजुट हो रहे जुनूनी युवाओं ने पहाड़ में ‘क्रांति’ की नयी उम्मीद जगायी है ।
आज जब संघर्ष ‘पहाड़’ पर पसरे सन्नाटे को ‘चीरने’ का है, तो सवाल यह है कि आखिर सन्नाटा क्यों हैं ? तमाम पूर्वाग्रहों से हटकर सिर्फ एक आम आदमी की नजर से जब हम ‘पहाड़’ को देखते हैं तो महसूस होता है कि सन्नाटा तो ‘पहाड़’ के असल ‘सवालों’ पर ही है । राज्य बने बीस साल होने जा रहे हैं, इन बीस सालों में पहाड़ मजबूत होने के बजाय ‘खोखला’ होता चला गया है । पहाड़ खुद को ‘ठगा’ महसूस कर रहा है। अलग राज्य बना तो आखिर ‘पहाड़’ के ही सवाल पर था, इसमें किसी को भी किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए । लेकिन आज उल्टा ‘पहाड़’ के अस्तित्व पर ही सवाल है । सवाल उठता है कि अगर राज्य पहाड़ के सवाल पर बना तो ‘पहाड़’ कहां हैं ? पहाड़ तो राज्य की नीतियों रीतियों में कहीं नजर ही नहीं आता । उत्तराखंड राज्य बना तो पहाड़ को क्या हासिल हुआ ? क्या ‘पहाड़’ को उसके मिजाज के मुताबिक नीतियां बनीं ? क्या अदद स्कूल हासिल हुए, अस्पताल मिले, कोरे वादों से छुटकारा मिला, आखिर क्या मिला ? राज्य बनने के बाद देखिये हो क्या हो रहा है । राजनीति शराब, खनन और जमीनों के इर्द गिर्द घू रही है । पहाड़ पर स्कूल बंद हो रहे हैं, शिक्षा का स्तर दिनों दिन लुढ़क रहा है । सरकारी अस्पतालों में मरीज फर्श पर तड़प रहे हैं , प्राइवेट अस्पतालों में सरकार की भी सुनवाई नहीं है । सरकारी कालेजों को बिल्डिंगें नहीं हैं और प्राइवेट कालेजों के लिए ‘रेड कार्पेट बिछे’ हैं । नेताओं और अफसरों के मेडिकल इंजीनियरिंग कालेज से लेकर यूनिवर्सिटियां तक खड़ी हो गयी हैं । पर्यटन के नाम पर भी अफसरों और नेताओं के सितारा होटल और रिसार्ट तैयार हुए हैं। उद्योगों के नाम पर पूंजीपतियों को बेशकीमती जमीनें कौढ़ियों के भाव सौंप दी गयी हैं । पहाड़ के हिस्से विकास के नाम पर अगर कुछ आया तो वह ऐसी योजनाएं, जिन्होंने ‘पहाड़’ को खंडहर में तब्दील कर दिया है । पहाड़ योजनाओं में कहीं नहीं है ‘पहाड़’ तो सिर्फ सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में रह गया है । जल, जंगल, जमीन, नदियां यह सब ‘पहाड़’ के लिए बेमानी हैं । अब तो सरकार खुद इतना पलायन पलायन चिल्लाने लगी है कि जो लोग बचे भी हैं वो भी पलायन को मजबूर हैं और सरकार पहाड़ के ‘पहाड़’ पूंजीपतियों को सौंपने की तैयारी में है।
सन्नाटा इस सवाल पर भी है कि पहाड़ को यह कैसा अलग राज्य मिला जिसकी न राजधानी है और न अपनी पहचान । संसाधनों की जो लूट उत्तर प्रदेश में कछुआ चाल से चलती थी वो उत्तराखंड बनने पर एक साथ कई गुना बढ़ गयी । जिधर देखो, हर कोई बस लूट में शामिल है । यकीन ही नहीं होता कि यह वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, बद्री दत्त पाण्डेय, माधो सिंह भंडारी, श्रीदेव सुमन जैसे महान सपूतों और गौरा देवी जैसी वीरांगना का पहाड़ है । ऐसे उत्तराखंड की कल्पना तो किसी ने नहीं की थी। रह रहकर आज यह सवाल उठता है कि किसके लिये यह राज्य बना ? चंद बाबुओं के लिए जो तरक्की दर तरक्की पाकर बड़े साहब की कुर्सी तक पहुंच गए और जिनकी नजरें अब नीचे नहीं टिकती । क्या उनके लिए जिनकी हैसियत ग्राम प्रधान या सभासद बनने तक की नहीं थी और जो आकाओं की परिक्रमा कर विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे हैं ? क्या उन ठेकेदारों और बिचौलियों के लिए जिनका कोई ईमान नहीं, रुपयों के लिए जो तमाम हदें पार कर चुके हैं ? सन्नाटा इसीलिए है क्योंकि आज लगता है कि राज्य इन्हीं के लिए बना है । सच भी यही है कि राज्य एक आम आदमी या अंतिम व्यक्ति के लिए तो बना ही नहीं।
छोडिये, देर से ही सही गैरसैण के बहाने राज्य की चिंता होनी तो शुरू हुई है, यह उत्तराखंड के भविष्य के लिए शुभ संकेत है । इतना श्रेय तो गैरसैण को जाता ही है कि नयी पीढ़ी उसके बहाने पहाड़ और ‘पहाड़’ के मुद्दों को समझने की कोशिश कर रही है । स्थायी राजधानी के बहाने नए सिरे से पहाड़ की बात होने लगी है, संघर्षों की पौधशाला में नयी पौध तैयार हो रही है। धीरे धीरे ही सही आमजन को समझ आने लगा है कि गैरसैण सिर्फ राजधानी का सवाल या मुद्दा नहीं है, गैरसैण आज ‘पहाड़’ के अस्तित्व का सवाल है । गैरसैण पहाड़ को नए सिरे से समझने और समझाने की कोशिश है । पहाड़ के जुनूनी युवाओं के नेतृत्व में पंचेश्वर से शुरू हुई जन संवाद यात्रा का मकसद भी यही है ।पंद्रह दिन की इस यात्रा में जिस तरह युवाओं ने पहाड़ की ‘आत्मा’ को छूने की कोशिश की है उससे एक नयी ‘क्रांति’ उम्मीद जगी भी है । पहाड़ के मर्मज्ञ चारू तिवारी जो अपने आप में जन संघर्षो की पाठशाला हैं, उनके संरक्षण में शुरू हुई इस यात्रा में जन संघर्षों का नेतृत्व करने के लिए नयी पीढ़ी तैयार हो रही है । प्रदीप सती, माहित डिमरी, रूपेश कुमार सिंह, नारायण सिंह और भी इन जैसे न जाने कितने ही जुनूनी युवा उत्तराखंड के दर्द को सिर्फ महसूस ही नहीं कर रहे बल्कि जीत के जज्बे के साथ संघर्ष में उतरे हैं। उनके जज्बे को देखते हुए उम्मीद की जा सकती है ‘क्रांति’ आएगी ।
हालांकि क्रांति यूं ही नहीं आती, बहुत कठित है किसी क्रांति का होना । क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के शब्दों में कहें तो “यह किसी एक आदमी की ताकत के वश की बात नहीं, न यह किसी निश्चित समय और तारीख पर आ सकती है । यह तो विशेष समाजिक, आर्थिक परिस्थतियों से पैदा होती है । एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है, जनता को इसके लिए तैयार करना होता है । क्रांति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है, इसके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानी देनी होती है” । शहीद भगत सिंह के नजरिये से देखें तो पहाड़ में एक क्रांति की परिस्थितियां तो बन रही हैं । दो दशक पहले तक जिस ‘पहाड़’ में उत्तराखंड बनाओ के नारे गूंजा करते थे वहां ‘उत्तराखंड बचाओ’ के नारे लगने लगे हैं। नयी पीढ़ी के क्रांतिकारियों ने ‘पहाड़’ के सवालों पर क्रांति की नयी इबारत लिखने शुरुआत तो की है । गैरसैण राजधानी का जुनून लिए सड़कों पर उतरे युवाओं की ‘जन संवाद यात्रा’ क्रांति में तब्दील होती है या नहीं अभी कहा नहीं जा सकता । लेकिन इतना जरूर है कि यह उनके लिए ‘चेतावनी’ जरूर है जो यह मान चुके हैं कि पहाड़ ‘लावारिस’ है ।