भारत की पहले महिला पर्वतारोही हैं और यह उपलब्धि उन्होंने 29 साल की उम्र में हासिल की थी। इसके बाद तो जैसे बछेंद्री, कई पर्वतारोहियों के लिए मिसाल बन गईं, खासतौर पर महिलाओं के लिए । 1993 में पाल ने एवरेस्ट जाने वाले भारत के पहले महिला अभियान की अगुवाई की । इसमें नेपाल और भारत की कुल 16 महिला पर्वतारोही शामिल थीं जो चोटी पर पहुंची। इसमें संतोष यादव भी थीं जो दुनिया की पहली महिला बनी जो एक ही साल में दो बार एवरेस्ट की चोटी पर गई । इसके अलावा पाल ने प्रेमलता अग्रवाल का भी मार्गदर्शन किया जो 48 साल की उम्र में चोटी पर पहुंचकर ऐसा करने वाली भारत की सबसे ज्यादा उम्र की महिला थीं ।
बछेन्द्री पाल का जन्म 24 मई 1954 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के नकुरी गांव में हुआ था। वह अपने गांव में ग्रेजुएशन करने वाली पहली महिला थीं। बीए करने के बाद बछेंद्री ने संस्कृत से एमए किया। इसके बाद बीएड की डिग्री हासिल की। बछेंद्री के गांव में लड़कियों की पढ़ाई लिखाई को अच्छे नजरिए से नहीं देखा जाता था। किसान परिवार होने के कारण उनके घर की माली हालत भी अच्छी न थी, इसलिए उन्हें शुरुआत में सिलाई कर खर्च चलाना पड़ा। वह जंगलों लकड़ी और घास लेने जाया करती थीं। पढ़ाई लिखाई और डिग्री हासिल करने के बाद भी जब बछेन्द्री पाल को कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली तो उन्हें लगा कि ये उनकी प्रतिभा का अपमान है । जिसके बाद बछेंद्री ने नौकरी की तलाश करने की बजाय इससे हटकर कुछ बड़ा करने की ठानी. उन्होंने माउंटनियरिंग में कॅरियर बनाने की सोची, हालांकि उनके स्वजन इसके खिलाफ थे वह उसे चाहते थे कि वह टीचर बनें। बावजूद इसके उन्होंने नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में दाखिले के लिए आवेदन कर दिया। ट्रेनिग करने के लिए उनकी मां ने अपना ‘तेमन्या’ (पहाड़ी महिलाओं का मंगलसूत्र) तक बेच दिया था। बिछेंद्री पाल ने बताया कि उनकी मां के इस त्याग ने ही उनका पूरा जीवन बदल दिया था ।
1984 में भारत ने एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए एक अभियान दल बनाया। इस दल का नाम ‘एवरेस्ट-84’ था। दल में बछेंद्री पाल के साथ 11 पुरुष और पांच महिलाएं थीं। बछेंद्री के लिए यह एक बड़ा मौका था। उन्होंने सोचा यही वह मौका जिसका उन्हें लंबे समय से इंतजार था। इसके लिए उन्होंने जमकर ट्रेनिंग ली। मिशन एवरेस्ट-84’ की शुरुआत 1984 के मई माह में हुई थी । खराब मौसम, खड़ी चढ़ाई और तूफानों को झेलते हुए आख़िरकार 23 मई 1984 के दिन बछेंद्री ने एवरेस्ट फतह करते हुए इतिहास रच दिया था। पूरे देश और दुनिया में बछेंद्री पाल की खूब तारीफ हुई। उनकी सफलता की गाथाओं से अखबारों के पन्ने रंग गए थे । बछेंद्री पाल ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि एवरेस्ट अभियान के दौरान एक ऐसा भी मौका आया था जब 23 मई, 1984 को एवरेस्ट फतह करने से एक रात पहले मुझे टीम से बाहर करने की नौबत आ गई थी। हुआ यूं था कि टीम में एक साथी को मदद की ज़रूरत थी। मैं उसकी मदद के लिए थोड़ा नीचे चली गई। उसे पानी और कुछ और सामान दिया। इससे हमारे कुछ साथी नाराज़ हो गए थे और मुझे टीम से बाहर करने तक की मांग कर डाली थी। हालांकि तब बाहर होने से मैं बच बई थी। 35 सालों में टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन, जमशेदपुर की संस्थापक निदेशक के तौर पर बछेंद्री पाल ने अब तक 4500 से ज्यादा पर्वतारोहियों को माउंट एवरेस्ट फतह करने के लिए तैयार किया है। इसके अलावा वह महिला सशक्तीकरण और गंगा बचाओ जैसे सामाजिक अभियानों से भी जुड़ी हैं, लेकिन उनकी पहचान भारत में पर्वतारोहण के पर्याय के रूप में बन चुकी है।
बछेंद्री पाल अब आजादी के अमृत महोत्सव के तहत ‘फिट एट 50 प्लस वूमेन ट्रांस हिमालयन एक्सपीडिशन’ मिशन शुरू करने जा रही हैं। 50 वर्ष से अधिक 12 महिलाओं के साथ 4600 किलोमीटर की पैदल यात्रा करेंगी। पड़ोसी देशों से गुजरने वाली इस यात्रा में दल का नेतृत्व वह खुद कर रही हैं। भारत को वर्मा से जोड़ने वाला पंगसौ दर्रा से 12 मार्च को यात्रा शुरू हो गई। यह यात्रा असम से होते हुए अरुणाचल प्रदेश, कारगिल, नेपाल, म्यामांर तक पैदल चलेगी। जो तकरीबन पांच माह तक चलेगी। बचपन से बहादुर रही बछेंद्र पाल को वर्ष 1984 में पद्मश्री, 1986 में अर्जुन पुरस्कार, जबकि वर्ष 2019 में पद्मभूषण मिला। इसके अलावा पर्वतारोहण के क्षेत्र में बछेंद्री पाल को कई मेडल और अवार्ड मिल चुके हैं। एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान उन्हें एक एवलॉन्च (बर्फीले तूफान) का सामना करना पड़ा था। इस तूफान के कारण सात हजार मीटर की ऊंचाई पर एक कैंप दब गया था। ऐसे में दल के कुछ साथियों ने चोटिल और थकान के कारण वापस लौटने का फैसला लिया। मगर बछेंद्री ने हार नहीं मानी और आगे बढ़ीं। 22 मई को आंग दोरजी( शेरपा सरदार) के नेतृत्व में दल ने एवरेस्ट को फतह कर लिया। वे इस दल में अकेली महिला थीं। इस उपलब्धि के बाद बछेंद्री पाल का नाम भारत के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया । उत्तराखंड के पहाड़ों की इस बेटी को आज हर कोई प्रणाम कर रहा है।
ये लेखक के निजी विचार हैं ।
डा0 हरीश अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
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