उत्तराखंड की संस्कृति को जानेंगे विदेशी मेहमान

वैसे तो हिमालय क्षेत्रों में अंनगिनत जङी बूटियों का भण्डार है, हिमालय के उत्तराखंड में बसा पौराणिक मानसखंड कुमाऊँ मंडल तथा केदारखंड गढ़वाल मंडल जो अब उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक वन सम्पदा के लिये देश-विदेश में सदियों से प्रसिद्ध रहा है। रमणीक भूभाग में पाई जाने वाली हर वनस्पति का मानव के लिये विशेष महत्व एवं उपयोग है. इतिहास गवाह है कि यहां कि समस्त वनस्पति जड़ी-बूटियां प्राचीन काल से ही मानव तथा जीव-जंतुओं की सेवा करती आ रही है। सिंसुणा: बिच्छू घास को संस्कृत में वृश्चिक, हिन्दी में बिच्छू घास, बिच्छू पान एवं बिच्छू बूटी कहते हैं। सिंसुणा को गढ़वाल में कनाली-झिरकंडाली, अंग्रेजी में नीटिल प्लांट तथा लेटिन में अर्टिका कहते हैं। उत्तराखंड में बटकुल अर्टकिसी के अंतर्गत बिच्छू की कुल तीन प्रजातियां पायी जाती हैं: अर्टिका पारविफिलौरायह 2000 फीट से 12000 फीट तक के भूभाग में पायी जाती है.इसका पौधा चार से छः फुट तक का होता है। इसमें पुष्प फरवरी से जुलाय तक खिलते हैं। अर्टिका डायोईकायह 6000 फीट से 10000 फीट तक के भूभाग में बंजर जगह में पाया जाता है। इसकी औसत ऊँचाई तीन से छः फुट तक होती है, इसमें पुष्प जुलाय-अगस्त में खिलते हैं। अर्टिका हायपरशेरिया15000 से 17000 फीट के भूभाग पर तिब्बत से लगी सीमा में पाया जाता है। इसमें फूल अगस्त में खिलते हैं। इसी कुल की एक प्रजाति फ्रांसीसी वनस्पति शास्त्री के नाम पर गिरारडियाना-हिटरोफायला दूसरी तरह की बिच्छू घास है। यह 4000 फीट से 9000 फीट तक के नमी वाले भूभाग में छायादार जगहों में बहुतायत से पायी जाती है। इसके पौधे चार से छः फीट के होते हैं। इनमें पुष्प जुलाई-अगस्त में खिलते हैं। इसको हिन्दी में अलबिछुआ चीचड़, नेपाली में डाली, मराठी में मांसी खजानी व पंजाबी में अजल-धवल कहते हैं। इसके पत्ते सिर दर्द में और इसका क्वाथ बुखार में दिया जाता है। कनाली-सिंसूणा में फार्मिक एसिड, लैसोविन (एक लसदार पदार्थ, नमक अमोनिया, कार्बोनिक ऐसिड और जंलास होता है। संग्राहक-शामक-संकाचक-रक्त विकार नाशक-मूत्रल तथा रक्त पित्त हर है। इसकी सूखी पत्ती का चूर्ण चार रत्ती मात्रा आग में डाल धुंए को सूंघने तथा नासिका द्वारा अंदर खींचने से श्वास एवं फुफ्मफस रोगों में लाभ होता है। स्थानीय लोग इसके रेसे से रस्सी, थैले, कुथले तथा पहनने हेतु वस्त्र बनाते हैं. इसके बीजों से ये लोग अपना खाना बनाने हेतु तेल प्राप्त करते हैं। बिच्छू घास का उपयोग आर्युवेदिक, युनानी, ऐलोपैथी तथा होम्योपैथी की बहुमूल्य औषधि बनाने में काम आता है। विदेशों में इसके कोमल पत्तों से हर्बल टी बनायी जाती है।

होम्योपैथी में योरोपीय जात अर्टिका वुरैन्स से मदर टिंचर तैयार किया जाता है। इसका उपयोग जरायु से रक्तश्राव होना, स्वेत प्रदर में खुजलाहट, डसने का सा दर्द, स्तन से दूध निकलते रहना, स्तनों में कड़ापन अथवा सूजन आ जाने एवं वात रोगों में होम्योपैथी की दवा 30 से 200 की शक्ती में देने से लाभ होता है। इस बूटी से तैयार हैयर-टानिक बालों को गिरने से रोकता है और उनको चमकीला एवं मुलायम बनाता है। जब उत्तराखंड में ग्रीष्मकाल में चारे की कमी होती है तो उत्तराखंड की कर्मठ महिला अपने दुधारु पशुओं को बिच्छू घास खिलाती हैं इससे दुधारु पशु ज्यादा दूध देते हैं।
जंगली पौधा बिच्छू घास को छूने से ही करंट जैसा अनुभव होता है, लेकिन यह पौधा औषधीय गुणों से भरपूर है कई बीमारियों के साथ ही शरीर को तंदरूस्त रखने में भी वरदान साबित होता है। उत्तराखंड के हिमालयी इलाको में पाये जाने वाले इस पौधे का तना-पत्ती से लेकर जड़ तक हर हाल में काम आता है।

पहाड़ों में कंडाली के नाम से विख्यात इस घास को पहले सब्जी बनाने से लेकर घरेलु औषधीयोें के रूप में प्रयोग में लाया जाता था, लेकिन एंटीबायोटिक दवाईयों के इस दौर में इस घास की उपयोगिता बिल्कुल शून्य हो चुकी। भले ही पूर्व में तत्कालिक सरकार में मुख्यमंत्री ने भांग और कंडाली (बिच्छू घास) की खेती को बढ़ावा देने के अनको घोषणायें तो की हैं लेकिन परिणाम विफर ही साबित रहा। जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री में कई बार इसकी उपयोगिता को लेकर कई योजनायें शुरू करने की बातें कह चुके हैं धरातल पर अब तक ये योजनायें नहीं दरअसल बिच्छू घास एक प्रकार की बारहमासी जंगली जड़ी-बूटी है, जिसे अक्‍सर खरपतवार या बेकार पौधा समझा जाता है। लेकिन अपने गुणों के कारण यह विभिन्‍न प्रकार के अध्‍ययनों का विषय बन चुका है। यह मुख्‍य रूप से हमारे लिए एंटीऑक्‍सीडेंट का काम करता है। इस पौधे के उपयोगी हिस्‍सों में इसके पत्‍ते, जड़ और तना होते हैं।

बिच्छू घास अथवा स्थानीय भाषा में कंडाली कहें जाने वले इस घास से बुखार आने, शरीर में कमजोरी होने, पित्त दोष, गठिया, शरीर के किसी हिस्से में मोच, जकड़न और मलेरिया जैसे बीमारी को दूर भागने में उपयोग करते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी साग-सब्जी भी बनायी जाती है. इसकी तासीर गर्म होती है और यदि हम स्वाद की बात करे तो पालक के साग की तरह ही स्वादिष्ट भी होती है इसमें आइरन, कैल्सियम और मैगनीज प्रचुर मात्रा में होता है. माना जाता है कि बिच्छू घास में काफी आयरन होता है. जिसे हर्बल डिश कहते हैं।

कंडाली की चाय को यूरोप के देशों में विटामिन और खनिजों का पावर हाउस माना जाता है। जो रोग प्रतिरोधक शक्ति को भी बढ़ाता है। इस चाय की कीमत प्रति सौ ग्राम 150 रुपये से लेकर 290 रुपये तक है। बिच्छू घास से बनी चाय को भारत सरकार के एनपीओपी (जैविक उत्पादन का राष्ट्रीय उत्पादन) ने प्रमाणित किया है।कृषि से जुड़े अधिकारी भी इसे कृषि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव लाने में उपयोगी मानते हैं।

कंडाली बिच्छू घास जैसी ही न जाने कितनी ही जड़ी-बूटियों के भण्डार से पहाड़ भरा पड़ा हैं लेकिन स्पष्ट और कारगर नीति न बनने के कारण ये औषधीय पौधे अब अपने अस्तित्व को ही खो रहे हैं। ऐसे में जरूर है सरकार जुल्मलेबाजियों से इतर इस ओर गम्भीरता से ध्यान दे ताकि यह न केवल किसानों के लिए फायदेमंद हो बल्कि इसका वजूद भी जिंदा रह सके। लेकिन कारगर और स्पष्ट नीति न बनने से इनकी पहचान विलुप्त होती जा रही है। ऐसा ही एक पहाड़ के गांवों में कंडाली के नाम से विख्यात बिच्छू घास है जिसकी उपयोगिता की बातें भले ही सरकारें जब-तब करती रही हो लेकिन धरातल पर अमलीजामा न पहनाये जाने से बिच्छू घास का अस्तित्व ही अब संकट में आ गया है।उत्तराखंड जैवविविधता से भरापूरा राज्य है। यहां प्रकृति ने वनस्पतियों के रूप में काफी कुछ दिया है, जिनका सही मायने में मानव कल्याण के लिए उपयोग व राज्य के विकास में काम किया जाना बाकी है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)